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नज़्म
उधर लैम्प की ओट से घूरती छिपकली कर रही है इशारे
मसहरी से लग कर करीह और बद-शक्ल मकड़ा खड़ा है
शाहिद जमील
नज़्म
उरूक़-मुर्दा-ए-मशरिक़ में ख़ून-ए-ज़िंदगी दौड़ा
समझ सकते नहीं इस राज़ को सीना ओ फ़ाराबी