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नज़्म
तेरे बस में थी अगर मशअ'ल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख़्सार में गुलज़ार न भड़का होता
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
समाजी मशग़लों में या तो हैं शादी की तक़रीबें
नहीं तो महफ़िल-ए-मीलाद वो मज्लिस नियाज़ और नज़रें