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नज़्म
हर इक सख़्त मौज़ू पर इस तरह बोलता था कि मुझ को
समुंदर समझते थे सब इल्म ओ फ़न का, हर इक मेरी ख़ातिर
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
पढ़ी-लिक्खी हों या अन-पढ़ यहाँ दोनों बराबर हैं
जो मौज़ू-ए-सुख़न सुनिए तो कपड़े और ज़ेवर हैं
सय्यदा फ़रहत
नज़्म
आम मौज़ू-ए-सुख़न में भी अयाँ लहजा-ए-ख़ास
ज़ेहन की बात में भी दिल की धमक का एहसास
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
तब-ए-मशरिक़ के लिए मौज़ूँ यही अफ़यून थी
वर्ना क़व्वाली से कुछ कम-तर नहीं इल्म-ए-कलाम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
रम्ज़-ओ-ईमा इस ज़माने के लिए मौज़ूँ नहीं
और आता भी नहीं मुझ को सुख़न-साज़ी का फ़न
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ख़ुद तो ना-मौज़ूँ भी कह लेता हूँ मौज़ूँ भी मगर
दूसरे के शे'र पर तन्क़ीद फ़रमाता हूँ मैं