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नज़्म
सुब्ह सुब्ह इक ख़्वाब की दस्तक पर दरवाज़ा खोला' देखा
सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आए हैं
गुलज़ार
नज़्म
महफ़िल-ए-ज़ीस्त पे फ़रमान-ए-क़ज़ा जारी है
शहर तो शहर है गाँव पे भी बम्बारी है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तू तो बाग़-ए-ख़ुल्द में मेहमान-ए-यज़्दाँ हो गई
और यहाँ पर मेरी दुनिया पल में वीराँ हो गई
शहनाज़ परवीन शाज़ी
नज़्म
आह इस दार-ए-फ़ना में है बक़ा किस के लिए
छोड़ने वाला है शाहीन-ए-क़ज़ा किस के लिए