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नज़्म
निगाह को थी मगर मीर-ए-कारवाँ की तलाश
नज़र जो उट्ठी तो देखा कि एक मर्द-ए-फ़क़ीर
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
ग़ज़लों के ऐ शहंशाह 'मीर'-ए-जहान-ए-उर्दू
बाक़ी नहीं जहाँ में नाम-ओ-निशान-ए-उर्दू
मोहम्मद ओवैस ख़ाँ
नज़्म
अपने मज़हब के मसाइल से तबीअ'त थी नुफ़ूर
रहते थे ज़िक्र-ए-बुतान-ए-सीम-तन की धुन में चूर
जगत मोहन लाल रवाँ
नज़्म
निशान-ए-'मीर'-ओ-'ग़ालिब', 'दाग़' और 'साइल' अभी तक हैं
जो शमएँ बच गई हैं रौनक़-ए-महफ़िल अभी तक हैं