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नज़्म
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
जौन एलिया
नज़्म
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
गर मिरा हर्फ़-ए-तसल्ली वो दवा हो जिस से
जी उठे फिर तिरा उजड़ा हुआ बे-नूर दिमाग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लोग ज़ालिम हैं हर इक बात का तअना देंगे
बातों बातों में मिरा ज़िक्र भी ले आएँगे
कफ़ील आज़र अमरोहवी
नज़्म
मेरी फ़रियाद-ए-जिगर-दोज़ मिरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में डूबी हुई मेरी गुफ़्तार