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नज़्म
इमकानों के हर कूचे में उम्मीदों की हर मुंडेर पर
मुस्तक़बिल के हर रस्ते में ख़्वाब की जोत जगाए रखना
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
कोई शाख़-ए-गुल है न कोई मुंडेर
घड़ी-दो-घड़ी पंखुड़ी जैसे पर जोड़ कर बैठ जाएँ जहाँ
शफ़ीक़ फातिमा शेरा
नज़्म
कितनी वीरान है उजड़े हुए ख़्वाबों की मुंडेर
भूली-बिसरी हुई यादों के पपीहे चुप हैं
प्रेम वारबर्टनी
नज़्म
मुंडेर पर की नहीफ़ बेलें
चारों जानिब को देखती हैं... वो कैसे बोलें कि उन के लब पे