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नज़्म
बोले ये इब्न-ए-उम्र सब से मुख़ातिब हो कर
इस में कुछ वालिद-ए-माजिद का नहीं जुर्म ओ क़ुसूर
शिबली नोमानी
नज़्म
तुम्हीं बताओ मैं ख़ुद को कहाँ तलाश करूँ
सवाल ये है कि तुम से ही क्यों मुख़ातिब हूँ
अमीता परसुराम मीता
नज़्म
लड़के मिरे ख़ुश हो के उधर देख रहे हैं
इख़्लास-ओ-मोहब्बत से मुख़ातिब हूँ जिधर मैं
अली मंज़ूर हैदराबादी
नज़्म
तू परेशाँ न हो गर मुझ से मुख़ातिब है कोई
मैं तुझे प्यार का मक़्सूम बता सकता हूँ