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नज़्म
ख़ुदा का शुक्र है कि तुम उन से मुख़्तलिफ़ निकले
जो फूल तोड़ के ग़ुस्से में बाग़ छोड़ते हैं
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
मुख़्तलिफ़ हर मंज़िल-ए-हस्ती को रस्म-ओ-राह है
आख़िरत भी ज़िंदगी की एक जौलाँ-गाह है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो जिस से तुम को मोहब्बत मिले रिफ़ाक़त भी
हज़ार एक हों दो ज़ेहन मुख़्तलिफ़ होंगे
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
मुँह में कुछ खोखले बे-मअ'नी से जुमले रख लो
मुख़्तलिफ़ हाथों में सिक्कों की तरह घिसते रहो
निदा फ़ाज़ली
नज़्म
न मिरा मकाँ ही बदल गया न तिरा पता कोई और है
मिरी राह फिर भी है मुख़्तलिफ़ तिरा रास्ता कोई और है
दिलावर फ़िगार
नज़्म
मुख़्तलिफ़ पेच-दर-पेच राहों से गुज़री चली जा रही हैं
सैकड़ों सर कटे धड़ बहुत रास्तों पर पड़े हैं
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
मैं सोचता हूँ कि ये तेरी बे-हिजाब हँसी!
मिज़ाज-ए-ज़ीस्त से इस दर्जा मुख़्तलिफ़ क्यूँ है