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नज़्म
ये ख़्वाहिशों के पुजारी ये मस्लहत के ग़ुलाम
फ़रेब-ओ-मक्र के क़िस्से मुनाफ़िक़त के नाम
नासिरा ज़ुबेरी
नज़्म
मुनाफ़िक़त की बरहनगी कैसे हर्फ़-ए-आग़ाज़ बन गई है
अदू-ए-दानिश को किस जफ़ा-कार मस्लहत ने
साजिदा ज़ैदी
नज़्म
और देते से बातें करने लगती है
मैं मुनाफ़िक़त को चीर कर पार निकल जाना चाहती हूँ
नसरीन अंजुम सेठी
नज़्म
मुनाफ़िक़त के सियाह बिस्तर पे सो रही थी
मिरी बरहना निगाह में रत-जगों की सुर्ख़ी जमी हुई है
नजीब अहमद
नज़्म
रऊनत ये सिखाती है मुनाफ़िक़ हुक्मरानों को
इसी के बत्न से होते हैं पैदा जब्र-ओ-ज़ुलम-ओ-शर
रहबर जौनपूरी
नज़्म
मैं मुनाफ़िक़ हूँ हर इक का दोस्त बन जाता हूँ मैं
दोस्त बन कर दोस्तों में फूट डलवाता हूँ मैं