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नज़्म
रेशमीं रूमाल से होंटों की सुर्ख़ी को न छू
मुझ पे छल सकता नहीं तेरा फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
माहिर-उल क़ादरी
नज़्म
लक्ष्मी की मोहब्बत ने दिल मोह लिया इतना
मुँह मोड़ के का'बे से पहुँचे सू-ए-बुत-ख़ाना
ज़रीफ़ लखनवी
नज़्म
मैं उस को का'बा-ओ-बुत-ख़ाना में क्यूँ ढूँडने निकलूँ
मिरे टूटे हुए दिल ही के अंदर है क़याम उस का
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
मैं उस वादी के ज़र्रे ज़र्रे पर सज्दे बिछा दूँगा
जहाँ वो जान-ए-काबा अज़्मत-ए-बुत-ख़ाना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
रह-ए-मंज़िल में एहसास-ए-फ़ना आग़ाज़-ए-मंज़िल है
अयाँ हर बुल-हवस पर राज़-ए-कैफ़-ओ-कम नहीं करते
मुनीर वाहिदी
नज़्म
अक़्ल-ओ-दिल की कश्मकश मुझ को तो ले डूबी 'मुनीर'
कहिए दोनों में है आख़िर लाएक़-ए-ताज़ीर कौन
मुनीर वाहिदी
नज़्म
'मुनीर' आसाँ नहीं है राह-ए-उल्फ़त से गुज़रना भी
ये लाज़िम है कि हो ले ख़ूगर-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ पहले
मुनीर वाहिदी
नज़्म
कृष्ण आए और उस बातिल-रुबा मक़्सद के साथ आए
कि दुनिया बुत-परस्ती का न दे इल्ज़ाम हिन्दू को
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
हमारी ख़्वाहिश-ए-तकरार की देरीना आदत से
वो मअ'बद-साज़ बुत-गर अपनी हस्ती के तक़द्दुस में
आफ़ताब इक़बाल शमीम
नज़्म
ऐ दिल-ए-काफ़िर इज्ज़ से मुनकिर आज तिरा सर ख़म क्यूँ है
तेरी हटेली शिरयानों में ये बेबस मातम क्यूँ है