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नज़्म
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी
ब-रब्ब-ए-काबा उस की याद में उम्रें गँवा दूँगा
अख़्तर शीरानी
नज़्म
ख़ाली हैं गरचे मसनद ओ मिम्बर, निगूँ है ख़ल्क़
रोअब-ए-क़बा ओ हैबत-ए-दस्तार देखना