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नज़्म
क्या बधिया भैंसा बैल शुतुर क्या गौनें पल्ला सर-भारा
क्या गेहूँ चाँवल मोठ मटर क्या आग धुआँ और अँगारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मगर ये कर नहीं सकता मस्लहत ख़ामोश रखती है
हरीम-ए-मय-कदे में ख़ानक़ाहों मठ मदरसों में
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
उस दिन बस्ती में रोने वालों का दिन था और तुम ने कहा था
ये लोग समुंदर मथ कर पीते थे अब रोते हैं
मोहम्मद अनवर ख़ालिद
नज़्म
औरतें हथेलियों से चाँद बुन रही हैं
दूध की कटोरियों से सूरजों की आत्माएँ मथ रही हैं