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नज़्म
पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जम्हूर की क़ब्र
कितने गुम-गश्ता फ़सानों का पता देती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तुम ने कभी सोचा है
तुम्हारी ये गहरे सन्नाटों में डूबी ख़ामुशी इस दरयूज़ा-गर पर कितनी भारी पड़ती है
जानाँ मलिक
नज़्म
तिरी रौशन-दिमाग़ी पर हैं नाज़ाँ आसमाँ वाले
तिरी नाज़ुक-ख़याली पर हैं हैराँ गुल्सिताँ वाले
बिर्ज लाल रअना
नज़्म
एक दिन इक मोर से कहने लगी ये मोरनी
ख़ुश-सदा है ख़ुश-अदा है ख़ुश-क़दम ख़ुश-रंग है
बासिर सुल्तान काज़मी
नज़्म
क़स्र-ए-शाही में कि मुमकिन नहीं ग़ैरों का गुज़र
एक दिन नूर-जहाँ बाम पे थी जल्वा-फ़िगन
शिबली नोमानी
नज़्म
खेलता था जब लड़कपन से तिरा रंगीं शबाब
हट रही थी माह-ए-आलम-ताब के रुख़ से नक़्क़ाब