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नज़्म
निकलते बैठते दिनों की आहटें निगाह में
रसीले होंट फ़स्ल-ए-गुल की दास्ताँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
सिर्फ़ ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ के निकलने तक है
रात के पास अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं