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नज़्म
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
जिस वक़्त पढ़ाते हैं टीचर दिल कितना परेशाँ होता है
लेकिन जब खेल खिलाते हैं तो कितनी मसर्रत होती है
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
नज़्म
सो ज़ाहिर है इसे शय से ज़ियादा मानता हूँ मैं
तुम्हें हो सुब्ह-दम तौफ़ीक़ बस अख़बार पढ़ने की
जौन एलिया
नज़्म
अल्फ़ाज़ की इफ़रात होती है
मगर फिर भी, बुलंद आवाज़ पढ़िए तो बहुत ही मो'तबर लगती हैं बातें