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नज़्म
सर-ए-दरिया परस्तिश हो रही है फिर गुनाहों की
करो यारो शुमार-ए-नाला-ए-शब-गीर बिस्मिल्लाह
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इस मोहब्बत को परस्तिश से बदलना भूल है
ये तक़ाज़ा ये तवाज़ुन इस दिल-ए-कामिल में है
अख़्तर हुसैन शाफ़ी
नज़्म
जैसे रेगिस्तान में भटकी हुई मौज-ए-बहार
जैसे वहमों की परस्तिश जैसे सायों का शिकार