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नज़्म
जिस के पर्दों में नहीं ग़ैर-अज़-नवा-ए-क़ैसरी
देव-ए-इस्तिब्दाद जम्हूरी क़बा में पा-ए-कूब
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जो है पर्दों में पिन्हाँ चश्म-ए-बीना देख लेती है
ज़माने की तबीअत का तक़ाज़ा देख लेती है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अस्बाब-ए-ज़ाहिरी में न इन पर करो नज़र
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जल्वा-गर
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
दूर साहिल पे वो शफ़्फ़ाफ़ मकानों की क़तार
सरसराते हुए पर्दों में सिमटते गुलज़ार
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अब्र के पर्दों में साज़-ए-जंग की आवाज़ है
फेंक दे ऐ दोस्त अब भी फेंक दे अपना रुबाब
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कोई पत्ता भी नहीं हिलता, न पर्दों में है जुम्बिश
फिर भी कानों में बहुत तेज़ हवाओं की सदा है
गुलज़ार
नज़्म
निगाहें धुंद के पर्दों में उन को ढूँडती हैं
और समाअत उन की मीठी नर्म आहट के लिए
अमजद इस्लाम अमजद
नज़्म
कोई नहीं देख सकता
तहें इस के पर्दों की ऐसे लचकती चली जाती हैं जैसे फैली हुई सतह-ए-दरिया ने