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नज़्म
ये घड़ी महशर की है तू अर्सा-ए-महशर में है
पेश कर ग़ाफ़िल ‘अमल कोई अगर दफ़्तर में है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मसअला ख़िदमत-ए-उर्दू का भी था पेश-ए-नज़र
अपने अशआ'र की अज़्मत से भी वाक़िफ़ थे मगर
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
नज़्म
इत्तिहाद ओ आश्ती हर दम रहें पेश-ए-नज़र
जा-गुज़ीं दिल में रहे ज़ौक़-ए-अमल बिल-इलतिज़ाम
अर्श मलसियानी
नज़्म
सब ख़ुशामद-पेशा, दुनिया-दार और बे-रोज़गार
रात दिन मिलने को आते हैं क़तार-अंदर-क़तार