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नज़्म
क़ुर्ब-ए-चश्म-ओ-गोश से हम कौन सी उलझन को सुलझाते रहे!
कौन सी उलझन को सुलझाते हैं हम?
नून मीम राशिद
नज़्म
फिर कफ़-आलूदा ज़बानें मदह ओ ज़म की कुमचियाँ
मेरे ज़ेहन ओ गोश के ज़ख़्मों पे बरसाने लगीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अब तक असर में डूबी नाक़ूस की फ़ुग़ाँ है
फ़िरदौस-ए-गोश अब तक कैफ़िय्यत-ए-अज़ाँ है
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
रिफ़अत-ए-गोश से सुनता हुआ मुबहम सा शरार
मेरी मंज़िल है कहा ये कभी सोचा ही नहीं
तसद्द्क़ हुसैन ख़ालिद
नज़्म
अब तक असर में डूबी नाक़ूस की फ़ुग़ाँ है
फ़िरदौस-ए-गोश अब तक कैफ़िय्यत-ए-अज़ाँ है
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
सरापा रंग-ओ-बू है पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त है
बहिश्त-ए-गोश होती हैं गुहर-अफ़्शानियाँ उस की
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मिरी बिगड़ी हुई तक़दीर को रोती है गोयाई
मैं हर्फ़-ए-ज़ेर-ए-लब शर्मिंदा-ए-गोश-ए-समाअत हूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
देख कर बश्शाश हो जाता है क़ल्ब-ए-पुर-मेहन
फूल गुड़हल का है या आवेज़ा-ए-गोश-ए-चमन
सय्यद मोहम्मद हादी
नज़्म
क़ुर्बानी हो भी जाए मगर खिंच रही है खाल
ऐ गोश्त खाने वालो ज़रा ख़ुद करो ख़याल