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नज़्म
साग़र निज़ामी
नज़्म
मैं लौट आया मगर सरासीमा इस तरह से
कि पिछले क़दमों पलट के देखा न गुज़रे रस्तों के फ़ासलों को
अली अकबर नातिक़
नज़्म
बयाज़-ए-शब-ओ-रोज़ पर दस्तख़त तेरे क़दमों के हों
बदन के पसीने से क़रनों के औराक़ महकें
वज़ीर आग़ा
नज़्म
इक ख़रीदार ने पूछा कि सबब क्या तो ज़बाँ खोली है
ये है क़रनों से खड़ा सोच की आवाज़ का बुत
शाज़ तमकनत
नज़्म
दूर हो सकता नहीं ऐ दोस्त क़रनों का सुकूत
ज़िंदगी अब अपने बरबत पर ग़ज़ल-ख़्वाँ है तो क्या