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नज़्म
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
हर दौर में सर होते हैं क़स्र-ए-जम-ओ-दारा
हर अहद में दीवार-ए-सितम होती है तस्ख़ीर
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तख़्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ