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नज़्म
क़ैद-ओ-बंद में रह कर भी लिक्खीं कितनी तहरीरें
एक हुए सब हिन्दू मुस्लिम ऐसी कीं तक़रीरें
मसूदा हयात
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
यूँ कहने को राहें मुल्क-ए-वफ़ा की उजाल गया
इक धुँद मिली जिस राह में पैक-ए-ख़याल गया