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नज़्म
रहबरान-ए-राह-ए-हक़ जब रहबरी फ़रमाते हैं
भूले-भटके सब मुसाफ़िर राह पर आ जाते हैं
जगत मोहन लाल रवाँ
नज़्म
चराग़-ए-राह बन कर रहबरी की जिस सहीफ़े ने
वो जुज़दानों के शीशे में चराग़-ए-बाम है साक़ी