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नज़्म
रुख़्सत हुआ वो बाप से ले कर ख़ुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
अब भी ख़िज़ाँ का राज है लेकिन कहीं कहीं
गोशे रह-ए-चमन में ग़ज़ल-ख़्वाँ हुए तो हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
छाई है जो अब तक धरती पर उस रात से लड़ते आए हैं
दुनिया से अभी तक मिट न सका पर राज इजारा-दारी का
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
क़दम क़दम पे दे उठी है लौ ज़मीन-ए-रह-गुज़र
अदा अदा में बे-शुमार बिजलियाँ लिए हुए