aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "rasm-e-takabbur"
इश्क़ को इश्क़ की आशुफ़्ता-सरी को छोड़ारस्म-ए-सलमान ओ उवैस-ए-क़रनी को छोड़ा
रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रहीफ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही
रस्म-ए-दीदार-ए-हिलाल-ए-ईद, अफ़्साना हुईबाम पर उस दम चढ़े, जिस वक़्त फ़रज़ाना हुई
ये फ़रेब-ए-रह-ए-मुबहम की शिकस्ता दीवारकब तलक क़स्र-ए-तक़द्दुस को सहारा देगी
ये रस्म-ए-बज़्म-ए-फ़ना है ऐ दिल गुनाह है जुम्बिश-ए-नज़र भीरहेगी क्या आबरू हमारी जो तू यहाँ बे-क़रार होगा
अब काफ़िरी में रस्म-ओ-राह-ए-दिलबरी नहींईमाँ की बात ये है कि ईमाँ चला गया
मैं ने कहा कि तुम से मुलाक़ात है बहुतहर रोज़ रस्म-ओ-राह-ए-मुदारात है बहुत
उसी से ताज़ा हुई रस्म-ए-नेकी-ओ-ख़ूबीउसी के दम से वतन पर था रहमतों का नुज़ूल
दुनिया हम से आ कर सीखे पाबंदी-ए-रस्म-ओ-राह-ए-वफ़ारूदाद-ए-ख़िज़ाँ दोहराते हैं जब ज़िक्र-ए-बहार आ जाता है
आओ कि रस्म-ए-अहल-ए-ख़राबात है यहीहर इश्क़-ए-सख़्त-जाँ की मुकाफ़ात है यही
ज़मीं भी तेरी है हम भी तेरे ये मिलकियत का सवाल क्या हैये क़त्ल-ओ-ख़ूँ का रिवाज क्यूँ है ये रस्म-ए-जंग-ओ-जिदाल क्या है
आइए हाथ उठाएँ हम भीहम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
मगर राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िल से बे-ख़बर हैंघरों को वीरान कर के
आख़िरी ये भी इक गुनाह करेंउन से हम तर्क-ए-रस्म-ओ-राह करें
फ़ना कर देंगे अहल-ए-जब्र-ओ-इस्तिब्दाद की हस्तीज़मीं में दफ़्न रस्म-ए-जहल-ओ-वहशत कर के छोड़ेंगे
अब छुड़ाओ तो जानूँरस्म-ए-बेवफ़ाई को
याद कर के तुझे मज़लूम-ए-वतन रोएँगेबंदा-ए-रस्म-ए-जफ़ा चैन से अब सोएँगे
कोईरस्म-ओ-राह थी ही नहीं
रस्म-ए-इजरा और कोई हो नहीं सकती
बिछी हुई है बिसात जिस की न इब्तिदा है न इंतिहा हैबिसात ऐसा ख़ला है जो वुसअत-ए-तसव्वुर से मावरा है
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