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नज़्म
ज़मीं के बचपन में जो भी शय थी वो ना-शनासा-ए-आरज़ू थी
शबाब आया तो रेंगने वाली रेंग उठी
अंजुम रूमानी
नज़्म
उँगलियाँ काठ की मिज़राब पे फिर रेंग गईं
दोनों पट ख़्वाब से चौंके तो मअ'न चीख़ उठे