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नज़्म
अख़्तर शीरानी
नज़्म
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार
सब आदमी ही करते हैं मुर्दे के कारोबार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
तुझ को अपनाने की हिम्मत है न खो देने का ज़र्फ़
कभी हँसते कभी रोते हुए सो जाता हूँ मैं