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नज़्म
वो रश्क-ए-शम-ए-हिदायात है अंजुमन के लिए
वो मिस्ल-ए-रूह-ए-रवाँ उंसुर-ए-बदन के लिए
बिस्मिल इलाहाबादी
नज़्म
हैं हक़ीक़त में मिरे क़स्बे के वो रूह-ए-रवाँ
देख कर बच्चे उन्हें कहते हैं ऐ बुद्धू मियाँ
शबनम कमाली
नज़्म
नौनिहालों की दिखा कर दम-ब-दम नश्व-ओ-नुमा
जिस्म में रूह-ए-रवाँ क्या क्या बढ़ाती है बहार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
और दौर-ए-हाल के हालात के हैं तर्जुमाँ
बल्कि कह सकते हैं इन को क़ौम के रूह-ए-रवाँ