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नज़्म
पल दो पल में कुछ कह पाया इतनी ही स'आदत काफ़ी है
पल दो पल तुम ने मुझ को सुना इतनी ही ‘इनायत काफ़ी है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ये जन्नत जो मिली है सब उन्हीं क़दमों की बरकत है
हमारे वास्ते रखना तुम्हारा इक सआदत है''
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
हक़ अदा करता रहूँ माँ-बाप का अहबाब का
दूसरों को भी मिरी जैसी सआ'दत कर अता
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
अजब क्या है कि अब हर शाह-राह से ये सदा आए
मुझे भी कम से कम इक ग़ुस्ल-ख़ाने की ज़रूरत है