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नज़्म
क़मर अपने लिबास-ए-नौ में बेगाना सा लगता था
न था वाक़िफ़ अभी गर्दिश के आईन-ए-मुसल्लम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इक न इक मज़हब की सई-ए-ख़ाम भी होती रही
अहल-ए-दिल पर बारिश-ए-इल्हाम भी होती रही
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मुझे शिकवा नहीं दैर-ओ-हरम के आस्तानों से
वो जिन के दर पे की है मुद्दतों मैं ने जबीं-साई
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कामरानी है पर-अफ़्शाँ मिरे रूमानों में
यास की सइ-ए-जुनूँ-ख़ेज़ पे ख़ंदाँ हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
बहुत चमका रहा हूँ ख़ाल-ओ-ख़त को सई-ए-रंगीं से
मगर पज़मुर्दगी सी ख़ाल-ओ-ख़त पर छाई जाती है
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
ब-सद ग़ुरूर ब-सद फ़ख़्र-ओ-नाज़-ए-आज़ादी
मचल के खुल गई ज़ुल्फ़-ए-दराज़-ए-आज़ादी