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नज़्म
देख मिरी जाँ कह गए बाहू कौन दिलों की जाने 'हू'
बस्ती बस्ती सहरा सहरा लाखों करें दिवाने 'हू'
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
सहरा को चमन बन कर गुलशन बादल को रिदा क्या लिखना
ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
हबीब जालिब
नज़्म
मैं न ज़िंदा हूँ कि मरने का सहारा ढूँडूँ
और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
गो आग से छाती जलती थी गो आँख से दरिया बहता था
हर एक से दुख नहीं कहता था चुप रहता था ग़म सहता था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे