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नज़्म
है दश्त अब भी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से 'फ़ैज़'
सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हुए तो हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मगर ये मय-कश कभी किसी के लहू से सैराब कब हुआ है
हमेशा आँसू पिए हैं उस ने हमेशा अपना लहू पिया है
तारिक़ क़मर
नज़्म
शहरयार
नज़्म
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
ज़ीस्त इक चा-ब-चा सड़ता हुआ गदला पानी
जिस से सैराब हुआ करते हैं ख़िंज़ीर ओ शग़ाल