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नज़्म
ये सब सही मिरे बचपन की शख़्सियत भी थी एक
वो शख़्सियत कि बहुत शोख़ जिस के थे ख़द-ओ-ख़ाल
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
थोड़ी देर को तन्हाई की हल्की ख़ुनकी बसी रहे
लोग घरों में और बोतल अलमारी ही में सजी रहे
ज़ेहरा निगाह
नज़्म
याद हैं उस को भी होंटों पे सजी कुछ तितलियाँ
याद है मुझ को भी उस की आँख में खुलती धनक