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नज़्म
जो साफ़ सलेट की मानिंद गुम-सुम है
और मैं सारे समुंदर आँसू पी कर प्यासी ही रह जाती हूँ
शाइस्ता हबीब
नज़्म
काफ़िर-ए-हिन्दी हूँ मैं देख मिरा ज़ौक़ ओ शौक़
दिल में सलात ओ दुरूद लब पे सलात ओ दुरूद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
आख़िरी तकरार के बाद मैं ने ज़बान समेट ली है
अब मैं एक लफ़्ज़ भी मज़ीद नहीं बोलूँगा
अम्मार इक़बाल
नज़्म
दफ़्न कर देगा जो ख़ालिक़ को भी मख़्लूक़ समेत
और ये आबादियाँ बन जाएँगी फिर रेत ही रेत
अहमद फ़राज़
नज़्म
अभी तो बहर-ओ-बर पे सो रही हैं मेरी वो सदाएँ
समेट लूँ उन्हें तो फिर वो काएनात को जगाएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
ऐ जवाँ-साल-ए-जहाँ जान-ए-जहान-ए-ज़िंदगी
सारबान-ए-ज़िंदगी रूह-ए-रवान-ए-ज़िंदगी!