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नज़्म
आख़िरी तकरार के बाद मैं ने ज़बान समेट ली है
अब मैं एक लफ़्ज़ भी मज़ीद नहीं बोलूँगा
अम्मार इक़बाल
नज़्म
दफ़्न कर देगा जो ख़ालिक़ को भी मख़्लूक़ समेत
और ये आबादियाँ बन जाएँगी फिर रेत ही रेत
अहमद फ़राज़
नज़्म
अभी तो बहर-ओ-बर पे सो रही हैं मेरी वो सदाएँ
समेट लूँ उन्हें तो फिर वो काएनात को जगाएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
गुलू-ए-कुश्ता से बेहिस ज़बान-ए-ख़ंजर से
सदा लपकती है हर सम्त हर्फ़-ए-हक़ की तरह