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नज़्म
ये हर इक सम्त पुर-असरार कड़ी दीवारें
जल-बुझे जिन में हज़ारों की जवानी के चराग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
आमिर उस्मानी
नज़्म
पेश-तर इस के कि हम फिर से मुख़ालिफ़ सम्त को
बे-ख़ुदा-हाफ़िज़ कहे चल दें झुका कर गर्दनें
अहमद फ़राज़
नज़्म
यही कुल असासा-ए-ज़िंदगी है इसी को ज़ाद-ए-सफ़र करूँ
किसी और सम्त नज़र करूँ तो मिरी दुआ में असर न हो
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
नूर ही नूर है किस सम्त उठाऊँ आँखें
हुस्न ही हुस्न है ता-हद्द-ए-नज़र आज की रात