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नज़्म
मर्हबा ऐ ख़ाक-ए-पाक-ए-किश्वर-ए-हिन्दोस्ताँ
यादगार-ए-अहद-ए-माज़ी है तू ऐ जान-ए-जहाँ
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
निगाह-ए-बद से देखा है किसी ने गर गुलिस्ताँ को
तो गुल-ची की हर इक साज़िश हमीं को साज़गार आई