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नज़्म
और मैं ताक़-ए-त'अल्लुक़ में रखा शाम-ए-चराग़
इसी उम्मीद में साँसों से जुड़ा हूँ कि ये लौ
नदीम नाजिद
नज़्म
वो पहली शब-ए-मह शब-ए-माह-ए-दो-नीम बन जाएगी
जिस तरह साज़-कोहना के तार-ए-शिकस्ता के दोनों सिरे
नून मीम राशिद
नज़्म
ज़िया-ए-ख़ामोश के सुकूत-आश्ना तरन्नुम में घुल रहा है
कि उक़्दा-ए-गेसू-ए-शब-ए-तार खुल रहा है
कृष्ण मोहन
नज़्म
या ख़ुदा ये मिरी गर्दान-ए-शब-ओ-रोज़-ओ-सहर
ये मिरी उम्र का बे-मंज़िल ओ आराम सफ़र