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नज़्म
ख़लाओं के अंधे मुसाफ़िर से पूछें
वो इक ज़र्रा-ए-ख़ाक से टूट कर दूर ला-इंतिहा वुसअतों और
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
नज़्म
अँधेरी शब के शर्मीले मोअत्तर कान में उस ने कहा वो शख़्स
दूर उफ़्तादा लेकिन मेरे दिल की तरह रौशन है
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
नज़्म
घर में कुछ भी नहीं तारीक सी ख़ुशबू के सिवा
कुछ चमकता नहीं अब ख़ौफ़ के जुगनू के सिवा