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नज़्म
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
चश्म-ए-दिल वा हो तो है तक़्दीर-ए-आलम बे-हिजाब
दिल में ये सुन कर बपा हंगामा-ए-मशहर हुआ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो चाहे अजनबी हो, यही लगता है वो मेरे वतन का है
बड़ी शाइस्ता लहजे में किसी से उर्दू सुन कर
गुलज़ार
नज़्म
सुन ऐ ग़ाफ़िल सदा मेरी ये ऐसी चीज़ है जिस को
वज़ीफ़ा जान कर पढ़ते हैं ताइर बोस्तानों में