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नज़्म
गर इश्क़ किया है तब क्या है क्यूँ शाद नहीं आबाद नहीं
जो जान लिए बिन टल न सके ये ऐसी भी उफ़्ताद नहीं
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ज़र दाम-दिरम का भांडा है बंदूक़ सिपर और खांडा है
जब नायक तन का निकल गया जो मुल्कों मुल्कों हांडा है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुलज़ार
नज़्म
बहुत होंगे मुग़न्नी नग़्मा-ए-तक़लीद यूरोप के
मगर बेजोड़ होंगे इस लिए बे-ताल-ओ-सम होंगे
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
सच कहो क्या हाफ़िज़े में है वो ज़ुल्म-ए-बे-पनाह
आज तक रंगून में इक क़ब्र है जिस की गवाह
जोश मलीहाबादी
नज़्म
सब अब्रन तन पर झमक रहा और केसर का माथे टीका
हँस देना हर-दम नाज़-भरा दिखलाना सज-धज शोख़ी का