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नज़्म
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ये तेरा ज़र्द रुख़ ये ख़ुश्क लब ये वहम ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जूड़े के इन्हीं फूलों को देखो कल की सी इन में बास कहाँ
एक इक तारा कर के डूबी माथे की तन्नाज़ अफ़्शाँ
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ज़बाँ को तर्जुमान-ए-ग़म बनाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'
मैं बर्ग-ए-गुल से अंगारे उठाऊँ किस तरह 'कैफ़ी'
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
अगर इक ज़र्द-रू, सहमा हुआ तारा निकल आए
तो क़ातिल रात का बे-इस्म जादू टूट जाता है