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नज़्म
जो ताक़-ए-हरम में रौशन है वो शम्अ यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे गोशे से इक जू-ए-हयात उबलती है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
पहले थीं वो शोख़ियाँ जो आफ़त-ए-जाँ हो गईं
''लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं''
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
कि भेदों-भरी रौशनी का निशाँ हैं?
कभी ताक़-ए-जाँ पर सँभाले थे तुम ने मआनी जो गुम हो गए थे
आरिफ़ा शहज़ाद
नज़्म
थे रक़म जिन में जिहाद-ओ-जंग-ए-आज़ादी के बाब
ताक़-ए-निस्याँ में उन्ही औराक़ को फेंका गया
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
ताक़-ए-नज़र की काँपती ज़ीनत बनें
कलियों के मुँह अब खुल चुके मुँह-बंद कलियाँ अब कहाँ