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नज़्म
उसे कहना मोहब्बत दूर है रस्मों-रिवाजों से
उसे कहना मोहब्बत मावरा तख़्तों से ताजों से
इरुम ज़ेहरा
नज़्म
तिरे इस बाग़ के तख़्तों पे हसरत सी बरसती है
परी-ख़ाना जो था इक दिन वो अब उजड़ी सी बस्ती है
नारायण दास पूरी
नज़्म
तख़्त-ए-फ़ग़्फ़ूर भी उन का था सरीर-ए-कए भी
यूँ ही बातें हैं कि तुम में वो हमियत है भी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तख़्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
रूह क्या होती है इस से उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
क्या मसनद तकिया मुल्क मकाँ क्या चौकी कुर्सी तख़्त छतर
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है
जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे