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नज़्म
सुब्ह-सलोनी गर्म चाय की प्याली ले कर दौड़ी
कैसा थर-थर काँप रहे हैं हाए दिसम्बर बाबा
अब्दुर्रहीम नश्तर
नज़्म
सर से पा तक जिस्म को ढाँपें आया मौसम जाड़े का
लेकिन फिर भी थर थर काँपें आया मौसम जाड़े का
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
थर-थर का ज़ोर उखाड़ा हो बजती हो सब की बत्तीसी
हो शोर फफू हू-हू का और धूम हो सी-सी सी-सी की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
पेड़ किनारे पर भीगी पर्वा से काँप रहे थे थर-थर
रह रह कर इक आध अन-देखा पंछी चीख़ उठता था जिन पर
तख़्त सिंह
नज़्म
हिज्र का लम्बा सफ़र काटे से क्यों कटता नहीं
पाँव कट जाते हैं पर रात का थर कटता नहीं