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नज़्म
क़ौल हर निकला ज़बाँ से जो तिरी शहदाब है
और लबों का तिल किताब-ए-इश्क़ का इक बाब है
जय राज सिंह झाला
नज़्म
ज़रा ख़ुनकी बढ़ी और तिल के लड्डू ले के माय आ पहुँचती थी
हक़ीक़त में वो बड़ का पेड़ थी जिस की घनी छाया
इशरत आफ़रीं
नज़्म
कानों में बेले के झुमके आँखें मय के कटोरे
गोरे रुख़ पर तिल हैं या हैं फागुन के दो भँवरे