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नज़्म
पत्थरों को तोड़ते हैं आदमी के उस्तुख़्वाँ
संग-बारी हो तो बन जाती है हिम्मत साएबाँ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
फ़िक्र-ए-गुनहगारी का ताज़ा दिल-रुबा पैग़ाम था
तेरे ही कूचे में ये सब अहद-ए-वफ़ा तोड़े गए
अली जवाद ज़ैदी
नज़्म
फ़लक-पैमा इमारत के लिए मज़दूर पत्थर तोड़ते हैं मुंहमिक हो कर
सहर की सुरमई धुंदली रिदाओं में
अम्बर बहराईची
नज़्म
कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़ कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ