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नज़्म
जैसे उजड़ी हुई महफ़िल के कुछ अफ़्सुर्दा चराग़
रौशनी में जिन्हें हर गाम पे ठुकराती है
शकील बदायूनी
नज़्म
चारों जानिब ठंडे चूल्हे, उजड़े उजड़े आँगन हैं
वर्ना हर घर में थे कमरे, हर कमरे में सामाँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
तेरे लिए आसमानों से कोई मो'जिज़ा नहीं उतरा
उजड़ा हुआ घर बे-बिज़ाअ'ती ज़मीन-ओ-आसमान की सख़्तियाँ