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नज़्म
लबों की मद्धम तवील सरगोशियों में साँसें उलझ गई थीं
मुँदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर
गुलज़ार
नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मचल रहा है रग-ए-ज़िंदगी में ख़ून-ए-बहार
उलझ रहे हैं पुराने ग़मों से रूह के तार